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तिल(til-or-sesame ) की खेती, तिल की खेती में खरपतवार नाशक दवा, तिल की खेती से किसानों की गरीबी मिटा सकती है

तिल(til-or-sesame ) की खेती, तिल की खेती में खरपतवार नाशक दवा, तिल की खेती से किसानों की गरीबी मिटा सकती है

         तिल की खेती




Botanical classification

Botanical name-Sesamum indicum L.

Family - Pedaliaceae

Chromosome number-

- सी० इण्डिकम  - 2n = 26


- सी० प्रोस्टेटम  - 2n = 32


- सी० रेडिएटम  - 2n = 64

महत्व एवं उपयोग(Importance and Utility)-




अन्य तिलहन फसलों की तरह ही तिल का भी महत्वपूर्ण स्थान है। तिल से कुछ मिठाई भी तैयार की जाती है। तिल के बीज का प्रमुख उपयोग तेल तैयार करने के लिए किया जाता है । इसके तेल का प्रयोग खाना बनाने , शरीर में लगाने, व्यापारिक सुगंधित तेल तैयार करने, साबुन बनाने, बादाम के तेल में मिश्रण करने इत्यादि के लिए किया जाता है। इसके बीच में 50% तेल व 18 से 20% तक प्रोटीन होती है।


उत्पत्ति एवं इतिहास(Origin and History)-




तिल का उत्पत्ति स्थान अफ्रीका है क्योंकि आफ्रीका में तिल का पौधा जंगली रूप में उगा हुआ पाया जाता है वैवीलोव व डी कंडोल के अनुसार भी तल की उत्पत्ति का मूल स्थान रूप से अफ्रीका में स्वतंत्र रूप से भारत में एवं दक्षिणी पश्चिम एशिया में हुई।

प्राचीन काल से ही भारत में तिल की खेती विस्तृत रूप से की जा रही है। विद्वानों का मत है कि आयुर्वेद के आगमन से पहले भी भारत में तिल की खेती की जाती थी। तिल का ही बोध हुआ पितरों की पूजा, दान देने वाली चीजें और हवन सामग्री में तिल का महत्वपूर्ण स्थान प्राचीन काल से चलता आ रहा है।


वितरण एवं क्षेत्रफल(Area and Distribution)-




विश्व में इसकी खेती चीन, रूस, अफ्रीका, मेक्सिको, अर्जेंटीना, मध्य यूरोप, फॉरमूसा, भारत, जापान, वर्मा, तुर्की, थाईलैंड आदि देशों में की जाती है। क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का प्रथम स्थान है। और दूसरा स्थान चीन का है।

विश्व के तिल का उत्पादन लगभग 25% उत्पादन भारत में होता है। भारत में तिल की खेती अधिकांश राज्य में की जाती है। इसकी खेती उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और गुजरात राज्य में सबसे अधिक क्षेत्रफल पर की जाती है।

उत्तर प्रदेश में 1992- 93 के आंकड़ों के अनुसार कुल क्षेत्रफल 12. 97 लाख हेक्टेयर तथा कुल उत्पादन 2. 94 हजार टन था उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक तिल हमीरपुर जिले में उत्पन्न किया जाता है।


जलवायु(Climate)-




भारतवर्ष में तेल समुद्र तल से लेकर लगभग 12 मीटर की ऊंचाई तक उगाया जाता है। तिल की फसल के लिए गर्म और नम जलवायु की आवश्यकता होती है। उत्तरी भारत में तिल की फसल खरीफ ऋतु में उगाई जाती है। जबकि मध्यप्रदेश और कुछ भागों में व महाराष्ट्र, गुजरात तथा अन्य भागों में तिल की फसल खरीफ और रवि दोनों में उगाई जाती है।

हमारे देश के उन भागों में जहां 50 सेंटीमीटर से अधिक वार्षिक वर्षा होती है, तिल की फसल वर्षा के आधार पर ही उगाई जाती है। तिल के पौधों की अच्छी वृद्धि के लिए 17°F से 85°F तापक्रम सबसे उत्तम होता है।


भूमि एवं भूमि की तैयारी(Land and Land management)-




तिल की खेती कपास की काली मिट्टी, भारी मटियार भूमि से लेकर बलुअर दोमट, हल्की दोमट में की जाती है। भारी भूमियों की अपेक्षा हल्की मृदा तिल की वृद्धि और विकास के लिए उत्तम होता है।

तिल की खेत की जुताई के लिए पहले जुताई मिट्टी पलट हल या हैरो से दो-तीन जुताई करते हैं। उसके बाद टिलर की सहायता से 2 जुताई तथा एक जुताई रूटर की करने पर अंत में पाटा चलाकर खेत को समतल कर लिया जाता है।

तिल की खेती


उन्नत जातियां(Improved varieties)-




गत वर्षों में तिल की नई विकसित उन्नत जातियां निम्न प्रकार है-

1994-   RT-103,   TKG-22,   YLM -1(वर्षा),  YLM-2(गौतम ),  TSS-6,   RT-78,   गुजरात तिल -2 ।

2000-   JT-55,  स्वेता तिल,  RT-127

तिल की अन्य किस्में-B-67 , सूर्या,  हरियाणा,  तिल RJ- 54,  उमा एवं उषा।

शेखर,AKT101, प्रगति, गुजरात तिल 10, तरुण,  2006 हिमा , अमृत, सावित्री, राजस्थान तिल 346,DSS-9 ,JLT-408


बीज एवं बीज की मात्रा(Seed and Seed Rate)-




तिल की खेती शुद्ध एवं मिश्रित रूप में की जाती है । बीज का आकार छोटा होने के कारण इसे रेत या सूखी हल्की बलुई मिट्टी में मिला कर बुवाई करते हैं।

शुद्ध फसल में बीज की मात्रा 5 से 8 किलोग्राम प्रति हे० मिश्रित फसल में बीज की मात्रा 2 से 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर पर्याप्त होती है। बीज सदैव कवकनाशी राशन उपचरित करके बोना चाहिए।

तिल की खेती


बोने का समय(Time of Showing)-




उत्तरी भारत में बीज की बुवाई वर्षा प्रारंभ होने पर खरीफ की ऋतु में करते हैं । विभिन्न क्षेत्रों में बुवाई जून-जुलाई में की जाती है।

मध्यप्रदेश व दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में जहां पर काली मृदा है। फसल की बुवाई अगस्त से सितंबर तक की जाती है।तमिलनाडु आंध्रप्रदेश व महाराष्ट्र में तिल की बुवाई अप्रैल से जून तक करते हैं। असम में तिल की तीन फसलें उगाते हैं।


बोने की विधियां(Showing Method)-




शुद्ध एवं मिश्रित दोनों प्रकार की फसलों की बुवाई छिटकवां विधि एवं पंक्तियों में करते हैं । बीज आकार में छोटा होने के कारण अधिकतर छिटकवां विधि प्रचलित है।

पौधे का अंतरण-  शुद्ध फसल 25 से 30 सेंटीमीटर  कतार  से कतार की दूरी तथा 10 से 15 सेंटीमीटर पौधे से पौधे की दूरी रखते हैं।


खाद एवं उर्वरक(Manure and Fertilizer)-




शुद्ध फसल के लिए उत्तरी भारत में हल्की मृदा में 50 से 60 कुंटल गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर देना लाभदायक रहता है।

हल्की बलुअर मृदा में 30 किलोग्राम नाइट्रोजन व 60 किलोग्राम फास्फोरस व 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से दिया जाता है।


सिंचाई एवं जल निकास(Irrigation and Water Management)-




वर्षा ऋतु में बोई गई फसल में सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है । परंतु सूखा पड़ने 1 से 2 सिंचाई आवश्यकतानुसार की जाती है। जिन क्षेत्रों में फसल वर्षा के बाद बोते हैं वहां पर 3-4 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।

तिल की खेती


खरपतवार नियंत्रण(Weed Control)- तिल की खेती में खरपतवार नाशक दवा




फसल बोने के 3-4 सप्ताह बाद निराई -गुड़ाई करके खरपतवार का करते हैं। पौधो की ऊंचाई 7-8 सेमी होते ही बोने के 15 से 20 दिन बाद पौधे की छटाई(Thinning) कर देते है।

बेसालिन 1 किलोग्राम सक्रिय अवयव को 800 से 1000 लीटर पानी में घोलकर बुवाई से पहले एक हेक्टेयर खेत में खेत में छिड़ककर भूमि में अच्छी प्रकार मिला देनी चाहिए। तिल की खेती से किसानों की गरीबी मिटा सकती है, तिल की खेती में खरपतवार नाशक दवा, पेंडीमेथिलिन का स्प्रे करना चाहिए


पादप सुरक्षा-




कीट नियंत्रण(Insect Control)-


1) तिल लीफ रोलर(Til leaf roller)-


यहां पतंगा लाल भूरे रंग का होता है और इसकी सुंडी हरे रंग की होती है। जिसके शरीर पर काले धब्बे पाए जाते हैं। यहां सुंडी पत्ती और फलियों को खाती है इसकी सुंडी सितंबर से नवंबर तक अधिक आक्रमण करती है।

इसकी रोकथाम के लिए डाईमाक्रोन 300ml को 900 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर या 0.4%  पैराथिआन का घोल छिड़कना चाहिए।


सैसेमम गाल फ्लाई(Sesamum gall fly)-


यहां अधिकतर बिहार और महाराष्ट्र पाया जाता है। इसके मैगट अंडे से निकलकर फूल के भागों को खाते हैं।

इसकी रोकथाम के लिए जो पौधे इसकी द्वारा प्रभावित है उन्हें उखाड़ कर जला देना चाहिए कुछ परजीवी जैसे Mermis sp. और Apanteles sp. जो इनके लारवा को खा जाते हैं।


तिल का हरा तेला(Jassid)-


यहां कीट पत्तों का रस चूसते हैं तथा रोजेट रोक को भी फैलाते हैं कीट के अधिक प्रकोप होने पर पत्ते सूख कर गिर जाती है।

इसकी रोकथाम के लिए 0.05% का इंडोसल्फान के घोल का छिड़काव करना चाहिए।


बिहार के रोएंदार सुंडी या गिंडार-


यहां सुंडी पत्तियों को खाती है और फसलों को अधिक नुकसान पहुंचाती है।

इसकी रोकथाम के लिए जीरो पॉइंट 15% इंडोसल्फान 35 ई० सी० के घोल का छिड़काव करना चाहिए


रोग नियंत्रण(Disease Control)-


रोजेट(Rosette or Phyllody)-


यहां एक विषाणु द्वारा फैलने वाला रोग है । रोगी पौधे झाड़ी के आकार के होते हैं । तने का उपरोक्त भाग खराब हो जाता है और पत्तियां रिबन के आकार की हो जाती है। शाखा अधिक निकलती है तथा तने की गांठो के बीच की दूरी कम हो जाती है।

इसकी रोकथाम के लिए 0.1% मेटासिस्टॉक्स के 800 लीटर घोल का छिड़काव प्रति हेक्टर करना चाहिए। यहां रोग एक प्रकार के फुदको द्वारा फैलाया जाता है।


लीफ स्पोट(Leaf spot)-


यहां रोग लगभग सभी तिल उत्पादक क्षेत्र में पाया जाता है। इसके लक्षण प्रारंभ में पत्तियों की दोनों सतह पर भूरे रंग के धब्बे के रूप में दिखाई देते हैं। बाद में यह बढ़कर 5 से 15 सेंटीमीटर व्यास तक के हो जाते हैं।

इसकी रोकथाम के लिए बीजों को गर्म जल उपचार 52 डिग्री सेंटीग्रेड पर 1 घंटे के लिए दिया जाता है । यहां एक बीज जनित बीमारी है।

डाईथेन Z -78 के 0.2% घोल का छिड़काव पौधों पर लाभदायक रहता है।


कटाई एवं मंड़ाई(Harvesting and Threshing)-


तिल की फसल जातियों के अनुसार 85 से 120 दिन के मैं पककर तैयार हो जाती है। अतः फसल के पकने पर देश के विभिन्न भागों में फसल की कटाई बुवाई के अलग-अलग समय में की जाती है। फसल के पकने पर पीले पड़ जाते हैं व पौधे सूखने लगते हैं । इस अवस्था पर फसल की कटाई हंसिया आदि की सहायता से कर लेते हैं।

पौधे को काटकर एवं बंडल बनाकर खलियान में लाकर सुखाते हैं। अच्छी प्रकार से सुखाने पर फलिया चटक जाती है व बीज बाहर निकल जाते हैं। आवश्यकता पड़ने पर मंड़ाई डंडे की सहायता से भी कर लेते हैं। बीज की हवा में ओसाई करके साफ कर लिया जाता है।


उपज(Yield)-




तिल की फसल की अच्छी देखरेख करने पर 5 से 8 कुंटल बीज प्रति हेक्टर प्राप्त हो जाती है।


तिल की खेती के साथ मिश्रित खेती कैसे की जाती है-




तिल की खेती कपास, अरंडी, अरहर, ज्वार, बाजरा, मक्का व ग्वार आदि फसलों के साथ करते हैं। रवि के मौसम में दक्षिण भारत में जौ, चना , अलसी, कुसुम, मसूर, ज्वार व गेहूं आदि के साथ तिल को मिश्रित रूप में उगाते हैं। पश्चिमी मध्य प्रदेश में तिल को मुंग या उड़द या सोयाबीन के साथ 3:1 में उगाने पर अधिकतम लाभ प्राप्त होता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तिल को अरहर के साथ 1:1 मे उगाने पर अधिकतम लाभ मिलता है।


तिल की खेती में खरपतवार नाशक दवा - pfg file 




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