B.N- मेन्या आर्वेन्सिस (Mentha arvensis)
परिचय-
पोदीना ( मेन्था रेट ) हाई रेट 987.50, कम रेट 959.20 सर्वप्रथम मिस्र में पाया गया था। चीन के साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता है। इसकी विधिवत् खेती का श्रीगणेश सन् 1870 में हुआ। भारत में इसे पश्चिमी हिमालय, कश्मीर, पंजाब, कुमाऊँ और गढ़वाल में उगाया जाता है। आजकल पोदीना की दो प्रजातियाँ बड़े पैमाने पर उगाई जाती हैं: 1. मेन्था पिपरीटा (Mentha piperita L.) इसे हिन्दी में 'विलायती पोदीना' कहते हैं जिसे अमेरिका, यूरोप व अन्य देशों में उगाया जाता है और 2 मेन्था आर्वेन्सिस (Mentha arvensis) इसे हिन्दी में जापानी पोदीना कहते हैं जिसे ब्राजील, जापान, चीन, फारमोसा और अब भारत, पूर्वी एशिया व विश्व में अन्य देशों में भी उगाया जाता है। भारत में पोदीने की व्यावसायिक खेती लगभग तीन दशकों से की जा रही है। इनमें जापानी पोदीना का स्थान सर्वोपरि है और इसे कुल पोदीना का 80-90 प्रतिशत क्षेत्रफल में उगाया जाता है। इसमें 65-75 प्रतिशत मेन्थाल पाया जाता है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश इसके उत्पादन में सबसे आगे हैं, क्योंकि इसका 60 प्रतिशत भाग उत्तर प्रदेश में ही उगाया जाता है। अब इसे मध्य प्रदेश, राजस्थान आदि में उगाया जाने लगा है।
मेन्था रेट-
मेंथा की आज की रेट क्या है?
आज की रेट
Intraday
वर्तमान Series
हाई रेट
987.50
1027.00
कम रेट
959.20
938.00
मेन्था रेट - के लिए भूमि व तैयारी-
भूमि-
भूमि दोमट बलुई चिकनी अच्छे जीवांश युक्त अच्छी जलधारण क्षमता वाली जिसका ph मान 5.5 से 7 के बीच हो अच्छी समझी गई है मेंथा अर्वेन्सिस एक बारहमासी जड़ी बूटी है जो संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, यूरोप और एशिया सहित दुनिया के कई हिस्सों में पाई जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, यह अक्सर नम घास के मैदानों में, धाराओं के साथ, गीली लकड़ियों में और अशांत मिट्टी में पाया जाता है। मेंथा अर्वेन्सिस उगाने के लिए सबसे अच्छी भूमि एक अच्छी तरह से जल निकासी वाली मिट्टी है
भूमि की तैयारी-
पहली जुताई मिटटी पलट हल से और दो तीन जुताई हीरो व टिलर से पाटते (मडा ) की सहायता से समतल करके खेत को बीज बोन योग्य बना लिया जाता है पुराने पौधों की जड़ों और छोटी झाड़ियों को चुनकर निकाल दें। फसल को दीमक आदि से बचाने के लिए 25 किलोग्राम लिन्डेन चूर्ण प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में डालना चाहिए।
जलवायु (Climate)—
मेन्था को कई प्रकार की जलवायु में उगाया जा सकता है। कम ऊँचाई वाले उष्ण कटिबंधीय एवं समशीतोष्ण क्षेत्र इसके लिए उत्तम माने गये हैं, लेकिन पिपरमेंट की खेती के लिए ठण्डी जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती भारत में तराई क्षेत्रों में भी सफल पायी गयी है। ऐसे क्षेत्र विशेष रूप से पहाड़ी क्षेत्रों जहाँ पर शीत ऋतु में पाला एवं बर्फ पड़ने की सम्भावना हो, मेन्था की खेती के लिए अनुपयुक्त समझे जाते हैं जहाँ पर न्यूनतम तापमान 5° सेल्सियस और उच्चतम 40° सेल्सियस तक जाता है, वहाँ पर भी इसकी खेती की जा सकती है। उत्तर प्रदेश में लखनऊ, मुरादाबाद, रामपुर, बरेली, बाराबंकी, सीतापुर जनपदों में इसकी खेती की जाती है। इसके अलावा हरियाणा, पंजाब, बिहार व मध्य प्रदेश की जलवायु भी मेन्था उगाने के लिए उपयुक्त मानी गयी है।
खाद एवं उर्वरक (Manure and Fertilizers ) –
पोदीना की अधिक उपज लेने हेतु मिट्टी की जांच करा लेनी चाहिए। कम उपजाऊ भूमि में गोबर की खाद या कम्पोस्ट खाद का 200-250 क्विटल प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें। औसत उर्वरा शक्ति वाली मृदा में नाइट्रोजन 120-150 किलोग्राम्
उन्नत किस्में-
Sr.N
पोदीने की प्रजाति
लक्षण
मुख्य अवयव
पोदीने की उन्नत किस्में
1.
जापानी पोदीना (Mentha arvensis)
पौधे सीधे या जमीन पर फैलने वाले होते हैं पत्तियाँ अंडाकार और चौड़ी होती हैं, पत्तियों को हाथ से मसलने से तेज पिपरमेंट के समान एक सुगंध पौधे के तने से 30 से 90 सेमी वाली शाखायें निकलती हैं। सफेद रंग के फूल गुच्छों में लगते हैं।
मेन्थाल और मिथाइल एसिटेट
एम०एस० 1 कोसी,संकर 77 आर आर, शिवालिक, एल 11813, गोमती, हिमालय
2.
काला पोदीना पिपरमिन्ट (Mentha piperita)
पौधे सीधे या आरोही व 30-100 सेमी ऊँचे होते हैं। पौधे चिकने व शाखायें अधिक होती हैं। और | इसमें मेन्थोन लगभग 50 प्रतिशत और मिथाइल 15 प्रतिशत पाया जाता है।
मेन्थाल, मेन्थाल और मिथाइल
एम०पी० एस० 5 पंजाब स्पीयरमिंट 1
3.
स्पीयर पोदीना (Metha spicata) or (Mentha viridis)
पौधे चिकने, तने कमजोर एवं शाखा सहित होते कारबोन हैं। पौधा 30-60 सेमी लम्बा होता है। पत्तियों म का डंठल बहुत छोटा, पत्तियाँ कम और किनारे दांतेदार होते हैं। कारबोन लगभग 65 प्रतिशत होता है। पत्तियों को हाथ से मसलने पर सोया जैसी सुगंध आती है।
कारबोन और लीमोनेन
एम०एस०एस० 5 पंजाब स्पीयरमिन्ट 1
4.
बारगामॉट पोदीना (Mentha citrata)
पौधे फैलने वाले या आरोही, 30-60 सेमी लम्बे तने एवं शाखायुक्त होते हैं। पत्तियाँ अण्डाकार होती हैं। पौधों पर रोयें नहीं होते। इसमें लिनेलूल (Linalool) 40 प्रतिशत और लिनायल एसिटेट 20 प्रतिशत पाया जाता है। इसकी पत्तियों को हाथ से मसलने पर धनिया जैसी सुगंध आती है।
लिनेलूल और लिनायल एसिटेट
किरण
बुआई का समय-
उत्तर भारत की जलवायु में जनवरी से फरवरी तक इसकी रोपाई की जाती है, पौधों को नाली में 60-70 सेमी की दूरी पर रोप दिया जाता है। भूस्तारियों को एक-दूसरे पर चढ़ा हुआ या उनके सिरों को सटाकर मिट्टी से ढक दिया जाता है। अच्छा तो यह रहेगा कि देशी हल के कूंड़ों में बोआई की जाये ।
बीज दर-
200 -250 kg जड़ों की आवश्यकता होती है।
बीज उपचार-
रोपाई की विधि-
मेन्था की रोपाई निम्न दो प्रकार से की जाती है-
(1) सीधे की रोपाई-
यह विधि उन परिस्थितियों में अधिक उपयोगी पाई गयी है, जहाँ रबी में खेत में कोई फसल न उगायी गई हो अथवा मेन्था की खेती प्रथम बार की जा रही हो ।
इन सकर्स को सीधे तैयार खेत में 60-70 सेमी की दूरी पर रोप दिया जाता है। रोपाई में पंक्तियों व पौधों के मध्य की दूरी का ध्यान रखा जाना नितान्त आवश्यक है जो कि मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर निर्भर करती है। यदि रोपाई जनवरी-फरवरी में की जा रही है और उस खेत से तीन कटाइयाँ लेनी हों तो पंक्तियों की आपसी दूरी का ध्यान रखना नितान्त आवश्यक है। इस परिस्थिति में पंक्तियों की 75 सेमी रखनी चाहिए। परन्तु यदि रोपाई अप्रैल-मई में की जानी है तो उसमें दूरी कम रखी जाती हैं, क्योंकि ये पौधे धीरे-धीरे घने हो जाते हैं। पौधों से पौधों की आपसी दूरी 4-5 सेमी होनी चाहिए। बोआई देशी हल के पीछे बने कूंड़ों में की जानी चाहिए। रोपाई के उपरान्त सकर्स मिट्टी से ढक देना चाहिए। ध्यान रहे कि सकर्स 5 सेमी से अधिक गहरे न जायें।
(2) पौध तैयार करके फिर रोपाई—
इस विधि में लगभग 500 किलोग्राम भूस्तारियों की आवश्यकता एक हेक्टेयर के लिए होती है। भूस्तारी के 9-10 सेमी लम्बे टुकड़ों को बोना चाहिए। इन्हें पहले फफूंदनाशक (टेफासॉन) घोल में 5-10 मिनट तक डुबो लेना चाहिए। इससे कल्ले अच्छे निकलते हैं और फसल भी अच्छी होती है। पहले वर्ष के अन्त में आधे हेक्टेयर क्षेत्र में लगाये गये पौधे 10 हेक्टेयर क्षेत्र में रोपे जा सकते हैं।
सिंचाई एवं जल निकास (Irrigation and Drainage ) —
पोदीना की उपज एवं तेल की गुणवत्ता पर सिंचाई का बहुत प्रभाव पड़ता है। अतः सिंचाई उचित समय व उचित मात्रा में की जानी चाहिए। पहली सिंचाई बोआई के तुरन्त बाद करनी चाहिए, क्योंकि पौधों की बढ़वार एवं विकास गर्मियों में होती है अतः 10-12 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करनी चाहिए। कटाई के तुरन्त बाद सिंचाई करनी चाहिए अन्यथा अंकुर्वे निकलने में बाधा पड़ सकती है। कटाई के एक सप्ताह पूर्व सिंचाई रोक देनी चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण (Weed Control) –
पोदीना की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो पौधों को विकास एवं बढ़वार पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। परीक्षणों से पता चला है कि बोआई के 30 से 75 दिन बाद और पहली कटाई से 15 से 45 दिन बाद फसल खरपतवारों से मुक्त रहनी
खरपतवार नियन्त्रण के लिए खरपतवारनाशी रसायनों का उपयोग भी किया जा सकता है 3 किलोग्राम पेन्डीमिथेलीन (स्टॉप) का 300 लिटर पानी में घोल बनाकर बोआई के उपरान्त छिड़काव करना चाहिए। ऐसा करने से फसल को 40-50 दिन तक खेत को खरपतवारों से मुक्त रखा जा सकता है। यह काय पौधों के जमाव से पूर्व ही करना चाहिए। 7-8 टन हेक्टेयर धान की पुआल या गन्ने की सूखी पत्ती भी पोदीने की पंक्तियों के बीच में रोपाई के 30-35 दिन बाद पलवार के रूप में बिछाने से विशेष रूप से मोथा नामक खरपतवार की रोकथाम हो जाती है।
पादप सुरक्षा-
रोग व रोग नियंत्रण -
भूस्तारी सड़न –
यह 'मैक्रोफोमिया फैसिवोलामी' और 'पिथियम' जाति की फफूंदियों के कारण उत्पन्न होता है। प्रारम्भ में यह रोग खेत के कुछ भागों में शुरू होकर परे खेत की फसल को नष्ट कर देता है। प्रकोप की शुरू की अवस्था में भूस्तारी और पौधे पर भूरे मृत चिह्न प्रकट होते हैं। जो बाद में गहरे रंग के हो जाते हैं और अन्त में सड़न प्रारम्भ हो जाती है। पत्तियाँ पीली होकर सूखकर नष्ट हो जाती हैं ।
इसकी रोकथाम के लिए निम्न उपाय करने चाहिए—
- रोपण से पूर्ण पौधों को किसी कवकनाशी दवा से उपचारित करके बोयें ।
- जलभराव को रोकने के लिए मेंडों पर पौधों की रोपाई करें।
- जिस खेत में यह रोग लगा हो उस खेत से रोपण सामग्री (Planting material) कभी भी न लें।
- रोगी पौधों को उखाड़कर नष्ट कर दें ।
जड़ और तना सड़न (Stolen and Stem Rot) -
यह 'बिलेविया वैसिकौला' नामक फफूँदी के कारण होता है। इसके कुप्रभाव से पोदीना की जड़ें (Stolen) के ऊपर काले बैंगनी रंग के बच्चे पड़ जाते हैं। बाद में जड़ों का रंग काला भूरा हो जाता है और उसमें सड़न होने लगती है। पौधे का विकास एवं बढ़वार रुक जाती है। धीरे-धीरे धब्बे जड़ों से बढ़कर तनों की ओर बढ़ने लगते हैं जिससे पोषक तत्त्वों की पर्याप्त मात्रा न मिलने से पौधा विकसित होने से पूर्व ही सूखने लगता है। पत्तियों सूखकर गिर जाती हैं और बाद में रोगग्रस्त पौधा नष्ट हो जाता है। यह रोग जड़ों के निर्माण यानि सितम्बर से दिसम्बर के बीच फैलता है।
इस रोग की रोकथाम के लिए निम्न उपाय करें-
- बोआई से पूर्व स्टोलन को 0.3% मेंकोजेब के घोल में आधा घण्टे तक डुबोकर बोयें ।
- मेंकोजेब 3 किलोमाम प्रति हेक्टेयर का घोल बनाकर खेत में बोआई के पूर्व छिड़के।
कीट व कीट नियंत्रण -
रोयेंदार सूंडी (Hairy Caterpillar ) —
इसका प्रकोप अप्रैल-मई के आरम्भ में होता है। कभी-कभी तो इसको अगस्त में भी देखा गया है। इसके प्रकोप से पत्तियाँ गिरने लगती हैं। इस कीट का प्रकोप तराई वाले क्षेत्रों में अधिक होता है। यह सूँडी पीले-भूरे रंग की रोयेंदार लगभग 2.5-3.0 सेमी लम्बी होती है। इस कीट की सूँड़ी पत्तियों के हरे ऊतकों को खाकर कागज की तरह जालीदार बना देती है। इससे पौधे की भोजन निर्माण क्षमता घट जाती है और फसल की उपज पर सीधा प्रभाव पड़ता है।
इसकी रोकथाम के लिए 1.25 लीटर बायोडान 35 ई०सी० अथवा मैलाथियॉन 50 ई०सी० को 1000 लिटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें। यदि आवश्यक हो तो 15 दिन के उपरान्त फिर छिड़काव करें। इसके नियंत्रण के लिए क्यूनालफॉस 300-400 मिलि० प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव भी किया जा सकता है।
दीमक (White Ant ) —
मेन्था में दीमक का अधिक प्रकोप होता है जिसके कारण फसल को काफी क्षति पहुँचती है। इससे फसल को सीधी हानि होती है। यह जमीन से लगे भाग के भीतर घुसकर उसके सेल्यूलोज भाग पर निर्भर रहती है। इसके आक्रमण से जड़ द्वारा मेन्था के ऊपरी भाग को उचित पोषक तत्त्वों की पूर्ति नहीं हो पाती है, जिससे पौधे मुरझा जाते हैं और पौधों की वृद्धि भी रुक जाती है।
इसकी रोकथाम के लिए निम्न उपाय करें-
- खेत की उचित समय पर सिंचाई करें।
- अन्तिम जुताई के समय भूमि में फोरेट दानेदार 10 जी दवा 20 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि में मिलाए या क्लोरडेन 100% धूल का 15-20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से उपयोग करें।
- क्लोरोपाइरीफॉस 20 ई०सी० के घोल से रोपाई से पूर्व भूस्तारियों को उपचारित करके रोपाई करें।
- खेतों में खरपतवारों को नष्ट करते रहना चाहिए।
लालड़ी (Red Pumpkin Beetle )-
यह कीट पत्तियों के हरे पदार्थ को खाकर छलनी कर देती है।
इसकी रोकथाम के लिए कार्बेरिल की 0.2 प्रतिशत घोल बनाकर 15 दिन के अन्तराल पर दो-तीन बार छिड़काव करना चाहिए।
सफेद मक्खी (White Fly) —
ये छोटे कीट 1-2 मिमी० लम्बे दूधिया रंग के सफेद होते हैं। इसके प्रौढ़ एवं शिशु दोनों ही मेन्था की पत्तियों के नीचे आक्रमण करके पौधे का रस चूसते हैं जिसके फलस्वरूप पौधों की वृद्धि रुक जाती है। कभी-कभी अधिक प्रकोप के कारण सफेद मक्खी द्वारा निकाले हुए मीठे पदार्थ पर सूटी मोल्ड विकसित हो जाता है। जिसके कारण पौधों में प्रकाश-संश्लेषण (Photosynthesis) की क्रिया बंद हो जाती है। मेन्था की उपज भी कम हो जाती है। यह कीट भी विषाणु रोग फैलाने में सहायता करता है । इस कीट के प्रकोप को रोकने के लिए फॉस्फामिहान का 200 मिलि का छिड़काव प्रति हेक्टेयर की दर से करना चाहिए।
पत्ती लपेटने वाला कीट (Leaf Roller Insect )—
इसकी सूंडी हरे रंग की होती है जिसके ऊपर लाल व पीले रंग की बिंदिया होती हैं सूर्य के प्रकाश के होने पर इसकी सूंडियाँ बहुत ही क्रियाशील हो जाती हैं। प्रारम्भ में सूंडी पत्तियों की ऊपरी कोशिकाओं को खाती हैं और थोड़ी वृद्धि होने पर पत्ती की लम्बाई में अपने लार के द्वारा बुनाई कर देती है। इसके अन्दर रहकर पैरेन्काइमस ऊतक को खाती है। एक सूँडी लगभग 2 से 3 पत्तियों के ऊपर अपना जीवन-यापन 10-12 दिन तक करती है। पत्तियों पर सीधा प्रकोप होने के कारण मेन्था के शाक एवं उसके तेल उत्पादन में भारी कमी हो जाती है। इस कीट की रोकथाम के लिए इकालक्स 300-400 मिलि० प्रति हेक्टेयर 625 लिटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
जालीदार कीट -
वह कीट लगभग 2 मिलि० लम्बा और 1.5 मिमी चौड़ा काले रंग का होता है जो मेन्था की पत्तियों पर आक्रमण करता है। इसके शरीर की ऊपरी सतह पर लम्बे, काले एवं जाली की तरह के चिह्न बने होते हैं। यह कीट पौधे के कोमल तने एवं पत्तियों का रस चूसता है जिसके कारण पौधा जला हुआ दिखाई देता है। इसका प्रकोप अधिकतर मेन्था बरगामाट में होता है। इसके नियन्त्रण के लिए डाइमेथोएट का 400 से 500 मिलि० प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
सेमी लूपर (Semi Looper) –
इस कीट की सूँडी 3-4 मिमी० लम्बी और हरे रंग की होती है। इसके शरीर के किनारे पर दोनों तरफ लम्बाई में सफेद रेखा होती है सूंडी पत्तियों को सीधा काटकर खाती है और पत्तियों में छिद्र बना देती है। इस कीट का प्रकोप मेन्या की दूसरी फसल लेने पर होता है। इसकी रोकथाम के लिए मैलाथियान का 300 मिलि० प्रति हेक्टेयर की दर से 625 लिटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
कटाई (Harvesting)—
कटाई की अवस्था का पोदीने की उपज और उसके तेल की गुणवत्ता दोनों पर प्रभाव पड़ता है। यदि इसकी कटाई समय पर नहीं की गयी तो इसकी उपज और तेल की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इसकी प्रथम कटाई बोआई के 100-120 दिन बाद की जानी चाहिए। दूसरी कटाई पहली कटाई के 60-70 दिन बाद की जानी चाहिए। प्रतिवर्ष कटाई की संख्या जलवायु के अनुसार दो-तीन होती है। जब पौधा खूब फैला हुआ हो और फूल आने लगे हो तो यह समय तेल की मात्रा के लिए सर्वोत्तम होता है। इसी समय कटाई करना सर्वोत्तम रहता है। यदि जल्दी कटाई कर ली जायेगी तो उसमें मेन्थाल कम मात्रा में निकलेगा। यदि देर से की जायेगी तो पत्तियों के सूखने से तेल की मात्रा घट जायेगी। उत्तरी भारत में मेन्था एक, दो या तीन बार फूलता है अतएव दो महत्त्वपूर्ण कटाई मई-जून अगस्त-सितम्बर के महीने में की जानी चाहिए, तीसरी कटाई दूसरी कटाई के 65-70 दिन बाद की जाती
उपज-
पोदीने के तेल का औसत उत्पादन 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
तेल निकालना-
आसवन (Distillation) — ऐसा देखने में आया है कि यदि कटाई के उपरान्त फसल को 12-24 घण्टे हवा में छोड़ दें और फिर उससे तेल निकले तो तेल अधिक मात्रा में निकलता है। अतः थोड़ी हवा लगाने के उपरान्त ही फसल को तेल निकालने हेतु संयंत्र पर ले जाना चाहिए। कटी पत्तियों से सीधे ही भाप द्वारा तेल निकालने के लिए आसवन किया जाता है या फिर कई भभकों से गुजारने के पश्चात् उनका उच्च दाब (High Pressure) में आसवन किया जाता है। छोटे पैमाने पर आसवन हेतु वाष्प वाला उठने योग्य आसवन यंत्र उपयुक्त रहता है, जबकि बड़े पैमाने पर तेल निकालने के लिए भभकों की विधि ही लाभप्रद रहती है। पानी से हल्का होने के कारण तेल संग्राहक के भव में उऊपर की ओर तैरता है बाद में तेल को निथारकर छान लिया जाता है।
मेन्था की खेती- मेन्था रेट - PDF File
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